Tuesday, December 4, 2018

ईश्वर क्या है ?



हमेंशा से इस तरह की बाते होती रहती है कि ईश्वर क्या है ?  वह है भी या नहीं है ,
कुछ बुद्धजीवी भगवान के अस्तित्व को सिरे से नकार देते है, तो कुछ स्वीकार करते है कि कोई परम सत्ता तो है पर वो भगवान् है या कुछ और ये नहीं जानते, कुछ मानते तो है पर पूरी तरह से विश्वास नहीं करते हैं

यह लेख उन लोगों के लिए एक दिलचस्प हो सकता है जो भगवान में विश्वास करते हैं 
और 
जो भगवान पर विश्वास नहीं करते हैं!


यह प्यारा सा दृष्टांत डॉ. वेन डायर द्वारा लिखित "Your Sacred Self" से लिया गया है।  आशा करते है ये हमें उस परम सत्ता के बारे में सोचने पर विवश करेंगा :

 एक बार एक मां के गर्भ २ जुड़वाँ बच्चे थे, वे  दोनों रोज आपस में बातें करते, उनकी बातों का एक अंश कुछ इस प्रकार है : 

एक ने दूसरे से पूछा: "भाई क्या तुम प्रसव के बाद जीवन में विश्वास करते हो ?" 

दूसरे ने जवाब दिया, "बिल्कुल, क्यों?  शायद हम खुद को तैयार करने के लिए यहां हैं, जो हम बाद में करना हैं "

पहले कहा, "बकवास!"  "प्रसव के बाद कोई जिंदगी नहीं है! हमारा जीवन बस यही तक है "

दूसरे ने कहा, "मुझे नहीं पता, लेकिन यहां से अधिक हल्का होगा। शायद हम अपने पैरों पर चलेंगे और अपने हाथों से मुंह में खाना पहुचायेंगे और खाएंगे। शायद हमारे पास अन्य इंद्रियां भी होंगी जिन्हें हम अभी समझ नहीं पा रहे  हैं। "

पहले जवाब दिया, "ये सब बेतुकी बातें है। चलना असंभव है। और हमारे मुंह से खाना? यह भी     हास्यास्पद है! नाभि की नली से हमें जो कुछ भी चाहिए उसकी आपूर्ति हो जाती है, लेकिन यह नली इतनी छोटी है। प्रसव के बाद का जीवन को तार्किक रूप से संभव नहीं है। "

दूसरे ने जोर देकर कहा, "ठीक है, मुझे लगता है कि कुछ है और शायद यह उससे अलग है। शायद हमे इस नली की आवश्यकता नहीं होगी बाद में हमें अपने पोषण की पूर्ति स्वयं करनी होगी  । "

पहले जवाब दिया,"बकवास। और इसके अलावा यदि जीवन है, तो वहां से कोई भी वापस क्यों नहीं  आया है? प्रसव ही जीवन का अंत है, और हां ये याद रखो यहाँ से बाहर (प्रसव के बाद) केवल अंधेरा है, भयंकर सन्नाटा है और विस्मृति के अलावा कुछ भी नहीं है। "

दूसरे ने कहा, "ठीक है, हो सकता है कि तुम सही कह रहे हो, मुझे अधिक नहीं पता," लेकिन निश्चित रूप से हम माँ से मिलेंगे और वह हमारी देखभाल करेगी। "
पहले जवाब दिया  "माँ? क्या तुम वास्तव में "माँ" में विश्वास करते हो?" यह बात वाकई हास्यास्पद है।   "अगर माँ मौजूद है तो वह अब कहाँ है? "

दूसरे ने कहा, "वह हमारे चारों तरफ है। हम उससे घिरे हुए हैं। हम उसके हैं, हम उसमे ही रहते हैं। उसके बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं हो सकता है, और इस दुनिया का भी अस्तित्व में नहीं हो सकता है. "

पहले कहा:ठीक है, हो सकता है, पर मैंने तो उसे कभी नहीं देखा, इसलिए मैं  मानता हूँ  कि ये केवल बातें है, तार्किक दॄष्टि में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।"

जिस पर दूसरे ने जवाब दिया, "कभी-कभी, जब आप शान्त होते हैं और आप ध्यान से सुनते हैं, तो आप उसकी उपस्थिति को समझ सकते हैं, और आप उसकी प्रेमपूर्ण आवाज भी सुन सकते हैं, परन्तु शर्त इतनी ही है कि  आपको थोड़ा ध्यान से सुनना पड़ेगा। "

मुझे लगता है कि भगवान को और जीवन को समझने के लिए इससे बेहतर व्याख्या नहीं हो सकती। 
जैसे एक गर्भस्त शिशु को बाहर की दुनिया के बारे में कुछ भी पता नहीं होता है, परन्तु एक विस्वास है कि शायद इसके बाद भी जीवन है और दूसरी दुनिया बहुत सूंदर होगी।, 
एक आस्था है की माँ होती है जिसके भीतर ही शिशु की पूरी दुनिया है, वही तो उसका पोषण करती है. उसके बगैर तो शिशु का अस्तित्व ही संभव ही नहीं है। 
वैसे ही हम भी तो इस प्रकृति माँ के गर्भ में है हमें लगता है की यही सब कुछ है, इस दुनिया को ही हम सबकुछ मान बैठे है, इस बात पर हमें विश्वास ही नहीं होता कि इसके आलावा भी कुछ हो सकता है. हम मृत्यु के बाद जीवन पर विश्वास ही नहीं कर पाते है, हमें लगता है कि ये सब कपोल कल्पनाये हैं. चूँकि हम प्रसव और उसके पश्चात के जीवन जानकारी है इसलिए हमें लगता है की ऊपर जो चर्चा दोनों शिशुओं के बीच हो रही यही वो कितनी सार्थक है. 
प्रथम शिशु माँ के अस्तित्व को कर प्रसवोपरांत जीवन को ही नकार रहा है, जबकि द्वितीय शिशु पूर्ण आस्था के साथ माँ के अस्तित्व की अनुभूति करता है और प्रसवोपरांत सुन्दर जीवन की कल्पना करता है 

आप ही बताएं कि क्या यह  'भगवान' की अवधारणा के लिए सबसे अच्छी व्याख्याओं में से एक हो सकती हैं !