Friday, December 27, 2019

Peace and Happiness


There was a huge crowd at the entrance of a palace. 
A monk asked for alms to the king. 
The king said to him, whatever you want I will fulfill any wish, since you are the first person/(yachak) priest of the day and I have a rule to fulfill any wish for the first person every morning. 
The monk Moved his small alms ahead and said, "Just fill it with gold."

The king thought what could be more simple than this, but when the gold coins were put in that alms, it was found that it was impossible to fill it, it was magical, the more currency was put in it, the more empty it became, seeing the king sad. 
Than the monk said to the king, let me know if you can't fill, I will leave with the empty vessel only. 
At most it will happen that people will say that the king could not fulfill his promise.

The king emptied all his treasure, everything he had was put in that container, but surprisingly that was not filled, again the king tried but it did not filled, then 
The king asked the monk, your container is not ordinary, filling it is out of my power. 
I may ask what is the secret of this wonderful container ..?

That monk started laughing and said no special secret king, this container is made from the heart of man
do you know that the heart of man can never be filled ..? 
From wealth to knowledge, to fill it with anything, it will remain empty, because it has not been made to fill with these things. 
We are trying to fill it with many things, but because of not knowing this truth, the more we gets, the poorer we become, the heart desires more and more, even than it is not calm, why ..? 
Because the heart is made to get the divine and the divine resides in the truth,
so do you want peace? 
do you Want satisfaction? 
So make a resolution that I want nothing but God and Truth ……
This will give you complete peace and happiness. 

Sunday, November 24, 2019

सच क्या है?

 सच क्या है?: सच क्या है ? अगर आप सच देखना चाहते हैं, अपनी राय बिलकुल मत रखिये, ना सहमति और  ना  ही असहमति में ! बस आप तो एक काम करें कि पूर्ण निर्वि...

सच क्या है?

सच क्या है ?

अगर आप सच देखना चाहते हैं, अपनी राय बिलकुल मत रखिये, ना सहमति और  ना  ही असहमति में !

बस आप तो एक काम करें कि पूर्ण निर्विकार भाव से  सभी  घटनाओं को घटित होते हुए,
बिलकुल ऐसे देखें जैसे कोई चलचित्र चल रहा हो, और आप सिर्फ एक दर्शक हैं।

कुछ समय पश्चात सत्य स्वयं उजागर हो जाएगा।

इसके विपरीत यदि आप स्वयं घटनाओँ के प्रतिभागी बनकर उन पर अपना स्पष्ट मत व्यक्त करेंगे,
अपनी सहमति अथवा असहमति को दर्ज करायेंगे,
तो स्वयं आपकी दृष्टि में घटनाओं का रूप बदलने लग जाएगा।

आपके विचार,आपकी भावनायें आप की सोच को पूर्ण प्रभावित करने लगेंगी।

फिर आप को वही सत्य प्रतीत होगा, जो स्वयं आप की अपनी राय एवं दृष्टिकोण में सत्य होगा,
चाहे वह सत्यता से कोसों दूर ही क्यों ना हो।
आपकी अपनी आंखों पर जैसे ही आपके विचारों, मत एवं सोच के रंग का चश्मा चढ़ेगा, सत्य का रूप भी आपके चश्मे के रंग के अनुसार स्वयं अपना रंग बदलने लगेगा।
अंततः वो सत्य नही रह पाएगा,
बल्कि आपकी अपनी सहमति के अनुसार स्वयं आपका विचार एवं मत होगा, जिसको आप पूर्ण सत्य मानकर दूसरों पर थोपना चाहेंगे।

Tuesday, November 5, 2019

AAP CHAHTE KYA HAI: जीवन का आनंद

AAP CHAHTE KYA HAI: जीवन का आनंद: जीवन का आनंद  एक फकीर एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे। एक दिन उन्होंने लकड़हारे से कहा ...

AAP CHAHTE KYA HAI: Railway ticket cancellation and refund policy

AAP CHAHTE KYA HAI: Railway ticket cancellation and refund policy: Hi Friends,  Here is a graphical presentation given by IRCTC about the cancellation and refund policy of train tickets. Please read it c...

Railway ticket cancellation and refund policy

Hi Friends, 
Here is a graphical presentation given by IRCTC about the cancellation and refund policy of train tickets. Please read it carefully and save your hard-earned money. all of us are travelling and booking our tickets online or offline. we need to understand the cancellation process properly and get the correct refund amount by giving attention on it.





जीवन का आनंद

जीवन का आनंद 

एक फकीर एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे। एक दिन उन्होंने लकड़हारे से कहा कि सुन भाई, दिन-भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती । तू जरा आगे क्यों नहीं जाता, वहां आगे चंदन का जंगल है । एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा ।

गरीब लकड़हारे को विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है ! जंगल में लकड़ियां काटते-काटते ही तो जिंदगी बीती । यह फकीर यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा ? मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो ! फिर झूठ कहेगा भी क्यों ? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है । कभी बोला भी नहीं इसके पहले । एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है ।

फकीर के बातों पर विश्वास कर वह आगे गया । लौटा तो फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है । मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी । मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था । हम यही जलाऊ-लकड़ियां काटते-काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या ! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही । तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी ।

मैं भी कैसा अभागा ! काश, पहले पता चल जाता ! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है । जब जागा तभी सबेरा है । दिन बड़े मजे में कटने लगे । एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। एक दिन फकीर ने कहा ; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी । जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए ; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है ? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है ?

उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है । लकड़ियाँ-वकरियाँ काटना छोड़ो । एक दिन ले आओगे, दो-चार छ: महीने के लिए हो गया । अब तो वह फकीर पर भरोसा करने लगा था । बिना संदेह किये भागा । चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या ! चांदी ही चांदी थी ! चार-छ: महीने नदारद हो जाता । एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता ।

लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है । फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझे ही तुम्हें जगाना पड़ेगा । आगे सोने की खदान है मूर्ख ! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं ? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है । जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता ?

उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा ? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था । फकीर ने कहा, थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है । फिर और आगे हीरों की खदान है । और ऐसे कहानी चलती है । और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया ? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे । उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो । अब हीरों के आगे क्या हो सकता है ?

उस फकीर ने कहा, हीरों के आगे मैं हूं । तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा ! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा ?

वह आदमी रोने लगा । फ़कीर के चरणों में सिर पटक दिया । कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं, मुझे यह सवाल ही नहीं आता । तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है । यह ख्याल तो मेरे जन्मों-जन्मों में नहीं आ सकता था । कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है । फकीर ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है । अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं । अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे आगे है ।

यही मैं तुमसे कहता हूं : और आगे, और आगे । चलते ही जाना है । उस समय तक मत रुकना जब तक कि सारे अनुभव शांत न हो जाएं । परमात्मा का अनुभव भी जब तक होता रहे, समझना दुई मौजूद है, द्वैत मौजूद है, देखनेवाला और दृश्य मौजूद है । जब वह अनुभव भी चला जाता है तब निर्विकल्प समाधि । तब सिर्फ दृश्य नहीं बचा, न द्रष्टा बचा, कोई भी नहीं बचा । एक सन्नाटा है, एक शून्य है । और उस शून्य में जलता है बोध का दीया। बस बोधमात्र, चिन्मात्र ! वही परम है । वही परम-दशा है, वही समाधि है ।

Monday, September 9, 2019

क्या होगा भविष्य में ?



आज जो अशांति, निराशा और विध्वंस ही विध्वंस हर ओर पसरा दीखायी दे रहा है, तो हमारे मन में कहीं १ प्रश्न उठता है कि आने वाले दिनों में क्या होगा इस दुनिया का. 
कही किसी सिरफिरे ने परमाणु युद्ध शुरू कर दिया तो क्या होगा?
क्या यह नस्ट हो जाएगी ?

ऐसे में परम पूज्य गुरुदेव, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा की गयी यह भविष्यवाणी  मन को सम्बल दे जाती हैं और आने वाले सुखद भविष्य का आभाष कराती है 

लगता  कि सभी संकट १ - १ करके टल जायेंगे, अणु युद्ध और विश्वयुध्द नहीं होगा और यह पृथ्वी भी वैसी ही बनी रहेगी जैसी अभी है.  
प्रदुषण को मनुष्य ना सम्हाल पायेगा तो अंतरिक्षिय प्रवाह उसका परिशोधन करेंगे। 

जनसँख्या जिस तेजी से बढ़ रही है वह दौड़ एक दसाब्दी में आधी रह जाएगी। 

रेगिस्तान और ऊसरो को उपजाऊ बनाया जायेगा और नदियों को समुद्र तक पहुंचने से पहले ही बांध कर 
सिचाई तथा अन्य परयोजनो के लिए पानी उपलब्ध कराया जायेगा. 

प्रजातंत्र में चल रही  धांधली में कटौती होगी, उपयुक्त व्यक्ति ही वोट पा सकेंगे, अफसरों के स्थान पर पंचायते और जन सहयोग से ऐसे प्रयास चलपडेंगे की सरकार पर निर्भरता कम होगी, 

नया नेतृत्व उभरेगा, अगले दिनों मनीषियों की ऐसी बिरादरी का उदय होगा जो देश, जाति, वर्ग के आधार पर विभाजित वर्त्तमान समुदाय को विश्वमानव स्तर की मान्यता देकर विश्व परिवार बनाकर रहने को सहमत करेंगे, तब विग्रह नहीं सृजन ही सब पर सवार रहेगा. 

विश्व परिवार की भावना दिन दिन जोर पकड़ेगी और १ दिन वह समय आएगा जब सरे विश्व के नागरिक बिना आपस में टकराये साथ साथ रहेंगे और मिलजुल कर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे जिसे पुरातन सतयुग के समतुल्य रखा जा सकता है इसके लिए नवसृजन का उत्साह उभरेगा, 

नए लोग नये परिवेश से आगे आएंगे, जिनकी पिछले दिनों कोई चर्चा तक ना थी, वे इस तत्परता से बाग़डोर सम्हालेंगे मानो वे इसके लिए ऊपर आसमान से आये हो या धरती फाड़ कर निकले हो.

यह हमारा सपनो का संसार है, इसके पीछे कल्पनाये या अटकलें काम नहीं कर रही है, वरन अदृश्य जगत में चल रही हलचलों को देखकर आभास होता है जिसे हम सत्य को अधिक निकट देखते है.

- प. पू. गुरुदेव पंड़ित श्रीराम शर्मा  "सतयुग की वापसी" पुस्तक से 

Monday, September 2, 2019

गणेशजी के प्रतीक और उनका महत्व

 गणेशजी के प्रतीक और उनका महत्व

प्रश्न - गणेशजी के प्रतीक और उनका महत्व बताइये, हमे अपने बेटे को समझाना है। गणेश जी के गायत्री मंत्र की व्याख्या कीजिये।

उत्तर - सर्वप्रथम गणेश चतुर्थी की बधाईं स्वीकार करें।

गायत्री त्रिपदा कही जाती है। गायत्री मन्त्र के २४ अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। गायत्री मन्त्र के ‘ विद्महे’, ‘ धीमहि’ और  ‘ प्रचोदयात्’ शब्दों को लेकर चौबीस देवताओं की गायत्री रची गयी है। इससे गायत्री मन्त्र की पवित्रता, उच्चता और सर्वश्रेष्ठता सिद्ध होती है।

विद्महे का भावार्थ है, अपनी बुद्धि(Key skill) में धारण करने को।

‘धीमहि’ कहते हैं–ध्यान(Meditation) को।

प्रचोदयात कहते है पवित्र(Proliferation) बनाने को

गणेश गायत्री—ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।

भावार्थ - उस मंगलमय प्रकाशवान परमात्मा गणेश जी का ध्यान हम करते है, उन्हें मन बुद्धि और हृदय में धारण करने पर सब प्रकार की सुख-शान्ति, ऐश्वर्य, प्राण-शक्ति और परमपद की प्राप्ति होती है। हृदय हमारा निर्मल और पवित्र बने। हमारा जीवन श्रेष्ठ बने, और हमारी बुद्धि और हृदय पवित्र-निर्मल बने, हम सन्मार्ग पर चले।

गणेश गायत्री मंत्र क्यों जपना चाहिए? - पृथ्वी की तरह विचारो में भी गुरुत्वाकर्षण होता है। निरन्तर गणेश मंन्त्र जप से हम सद्बुद्धि, विवेकदृष्टि, सत्कर्म और भावों की पवित्रता के लिए अपने दिमाग़ में गुरुत्वाकर्षण-चुम्बकत्व पैदा करते हैं। जिसके प्रभाव से ब्रह्मांड में व्याप्त सादृश्य विचार, शक्ति और प्रभाव हमारे भीतर प्रवेश करते हैं। हम जैसे विचारों का गुरुत्वाकर्षण-आकर्षण-चुम्बकत्व पैदा करते है, धीरे धीरे हम वैसा करने लगते है और एक दिन हम वैसे बन जाते है। इसलिए अच्छे मंन्त्र जप से हम अच्छे इंसान बनते हैं। यह ब्रह्माण्ड गूगल सर्च की तरह है, जैसे विचार मंन्त्र जप द्वारा सर्च करोगे वैसे समान विचार-प्रभाव-शक्तियां तुम तक पहुंचेगा।

🙏🏻 गणेश जी के प्रतीक स्वरूप की व्याख्या 🙏🏻

गणेश जी का बड़ा सर - विवेक-सद्बुद्धि का प्रतीक है। ज्ञानर्जन हेतु सबसे ज़्यादा समय-साधन खर्च करने की प्रेरणा देता है। मानसिक आहार - स्वाध्याय और ध्यान द्वारा सद्बुद्धि-विवेक और अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है।

बड़े कान - कहते हैं कि हमेशा सतर्क रहो, और कान के पक्के बनो। सुनी सुनाई बातों पर भरोसा मत करो। किसी के कान भरने पर बहको मत।

लम्बी सूड़ - परिस्थिति को सूंघ लो दूर से ही। अर्थात भविष्य की घटनाओं का पुर्वानुमान करके योजना बनाओ। ऐसे कार्य करो जिनके दूरगामी लाभ और परिणाम हों।

गणेश जी का एक दांत -गणेशजी एकदन्त हैं , जिसका अर्थ है एकाग्रता। जो यह कहता है कि डबल थॉट/दोहरे विचारो में मत उलझो। एक लक्ष्य निर्धारित करो और एक निष्ठ होकर उस पर डटे रहो। उठो आगे बढ़ो और तब तक मत रुको, जबतक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।

गणेशजी का बड़ा पेट -  उदारता और आत्मीयता का प्रतीक है। अपने अंदर इतनी आत्मीयता रखो कि सर्वत्र बांटो।

गणेशजी का ऊपर उठा हुआ हाथ रक्षा का प्रतीक है – अर्थात, ‘घबराओ मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ’ और उनका झुका हुआ हाथ, जिसमें हथेली बाहर की ओर है,उसका अर्थ है, अनंत दान, और साथ ही आगे झुकने का निमंत्रण देना – यह प्रतीक है कि हम सब एक दिन इसी मिट्टी में मिल जायेंगे ।

वे अपने हाथों में अंकुश लिए हैं, जिसका अर्थ है – जागृत होना , और पाश – अर्थात नियंत्रण । जागृति के साथ, बहुत सी ऊर्जा उत्पन्न होती है और बिना किसी नियंत्रण के उससे व्याकुलता हो सकती है । मन पर नियंत्रण हेतु मन की वृत्तियों पर अंकुश लगाना अनिवार्य है।

गणेशजी, हाथी के सिर वाले भगवान क्यों एक चूहे जैसे छोटे से वाहन पर चलते हैं? क्या यह बहुत अजीब नहीं है?
 फिर से, इसका एक गहरा रहस्य है । एक चूहा उन रस्सियों को काट कर अलग कर देता है जो हमें बांधती हैं| चूहा उस मन्त्र के समान है जो अज्ञान की अनन्य परतों को पूरी तरह काट सकता है, और उस परम ज्ञान को प्रत्यक्ष कर देता है जिसके भगवान गणेश प्रतीक हैं ।

हमारे प्राचीन ऋषि इतने गहन बुद्धिशाली थे, कि उन्होंने दिव्यता को शब्दों के बजाय इन प्रतीकों के रूप में दर्शाया, क्योंकि शब्द तो समय के साथ बदल जाते हैं, लेकिन प्रतीक कभी नहीं बदलते । तो जब भी हम उस सर्वव्यापी का ध्यान करें, हमें इन गहरे प्रतीकों को अपने मन में रखना चाहिये, जैसे हाथी के सिर वाले भगवान, और उसी समय यह भी याद रखें, कि गणेशजी हमारे भीतर ही हैं । यही वह ज्ञान है जिसके साथ हमें गणेश चतुर्थी मनानी चाहिये ।

अपने बच्चे को गणेश गायत्री मंत्र और उनके प्रतीक रूपों को समझाइए। उन्हें हमारी तरफ से गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर ढेर सारा प्यार दीजिये।

साभार: - श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

मंदी आने वाली है

मंदी आने वाली है,

एक छोटे से शहर मे एक बहुत ही मश्हूर बनवारी लाल सामोसे बेचने वाला था। वो ठेला लगाकर रोज दिन में 500 समोसे खट्टी मीठी चटनी के साथ बेचता था रोज नया तेल इस्तमाल करता था और कभी अगर समोसे बच जाते तो उनको कुत्तो को खिला देता। बासी समोसे या चटनी का प्रयोग बिलकुल नहीं करता था, उसकी चटनी भी ग्राहकों को बहुत पसंद थी जिससे समोसों का स्वाद और बढ़ जाता था। कुल मिलाकर उसकी क्वालिटी और सर्विस बहुत ही बढ़िया थी।
उसका लड़का अभी अभी शहर से अपनी MBA की पढाई पूरी करके आया था।
एक दिन लड़का बोला पापा मैंने न्यूज़ में सुना है मंदी आने वाली है, हमे अपने लिए कुछ cost cutting करके कुछ पैसे बचाने चाहिए, उस पैसे को हम मंदी के समय इस्तेमाल करेंगे।
समोसे वाला: बेटा में अनपढ़ आदमी हु मुझे ये cost cutting wost cutting नहीं आता ना मुझसे ये सब होगा, बेटा तुझे पढ़ाया लिखाया है अब ये सब तू ही सम्भाल।
बेटा: ठीक है पिताजी आप रोज रोज ये जो फ्रेश तेल इस्तमाल करते हो इसको हम 80% फ्रेश और 20% पिछले दिन का जला हुआ तेल इस्तेमाल करेंगे।
अगले दिन समोसों का टेस्ट हल्का सा चेंज था पर फिर भी उसके 500 समोसे बिक गए और शाम को बेटा बोलता है देखा पापा हमने आज 20% तेल के पैसे बचा लिए और बोला पापा इसे कहते है COST CUTTING।
समोसे वाला: बेटा मुझ अनपढ़ से ये सब नहीं होता ये तो सब तेरे पढाई लिखाई का कमाल है।
लड़का:पापा वो सब तो ठीक है पर अभी और पैसे बचाने चाहिए। कल से हम खट्टी चटनी नहीं देंगे और जले तेल की मात्रा 30% प्रयोग में लेंगे।
अगले दिन उसके 400 समोसे बिक गए और स्वाद बदल जाने के कारन 100 समोसे नहीं बिके जो उसने जानवरो और कुत्तो को खिला दिए।
लड़का: देखा पापा मैंने बोला था ना मंदी आने वाली है आज सिर्फ 400 समोसे ही बिके हैं।
समोसे वाला: बेटा अब तुझे पढ़ाने लिखाने का कुछ फायदा मुझे होना ही चाहिए। अब आगे भी मंदी के दौर से तू ही बचा।
लड़का: पापा कल से हम मीठी चटनी भी नहीं देंगे और जले तेल की मात्रा हम 40% इस्तेमाल करेंगे और समोसे भी कल से 400 हीे बनाएंगे।
अगले दिन उसके 400 समोसे बिक गए पर सभी ग्राहकों को समोसे का स्वाद कुछ अजीब सा लगा और चटनी ना मिलने की वजह से स्वाद और बिगड़ा हुआ लगा।
शाम को लड़का अपने पिता से: देखा पापा, आज हमे 40% तेल , चटनी और 100 समोसे के पैसे बचा लिए। पापा इसे कहते है cost कटाई और कल से जले तेल की मात्रा 50% करदो और साथ में टिशू पेपर देना भी बंद करदो।
अगले दिन समोसों का स्वाद कुछ और बदल गया और उसके 300 समोसे ही बीके।
शाम को लड़का अपने पिता से: पापा बोला था ना आपको की मंदी आने वाली है।
समोसे वाला: हा बेटा तू सही कहता है मंदी आगई है अब तू आगे देख क्या करना है कैसे इस मंदी से लड़ें।
लड़का : पापा एक काम करते हैं, कल 200 समोसे ही बनाएंगे और जो आज 100 समोसे बचे है कल उन्ही को दोबारा तल कर मिलाकर बेचेंगे।
अगले दिन समोसों का स्वाद और बिगड़ गया, कुछ ग्राहकों ने समोसे खाते वक़्त बनवारी लाल को बोला भी और कुछ चुप चाप खाकर चले गए। आज उसके 100 समोसे ही बिके और 100 बच गए।
शाम को लड़का बनवारी लाल से: पापा देखा मैंने बोला था आपको और ज्यादा मंदी आएगी। अब देखो कितनी मंदी आगई है।
समोसे वाला: हाँ, बेटा तू सही बोलता है तू पढ़ा लिखा है समझदार है। अब् आगे कैसे करेगा?
लड़का: पापा कल हम आज के बचे हुए 100 समोसे दोबारा तल कर बेचेंगे और नए समोसे नहीं बनाएंगे।
अगले दिन उसके 50 समोसे ही बीके और 50 बच गए। ग्राहकों को समोसा का स्वाद बेहद ही ख़राब लगा और मन ही मन सोचने लगे बनवारी लाल आजकल कितने बेकार समोसे बनाने लगा है और चटनी भी नहीं देता कल से किसी और दुकान पर जाएंगे।
शाम को लड़का बोला, पापा देखा मंदी आज हमनें 50 समोसों के पैसे बचा लिए। अब कल फिर से 50 बचे हुए समोसे दोबारा तल कर गरम करके बचेंगे।
अगले दिन उसकी दुकान पर शाम तक एक भी ग्राहक नहीं आया और बेटा बोला देखा पापा मैंने बोला था आपको और मंदी आएगी और देखो आज एक भी ग्राहक नहीं आया और हमने आज भी 50 समोसे के पैसा बचा लिए। इसे कहते है Cost Cutting।
बनवारी लाल समोसे वाला : बेटा खुदा का शुक्र है तू पढ़ लिख लिया वरना इस मंदी का मुझ अनपढ़ को क्या पता की cost cutting क्या होता है।
और अब एक बात और सुन.....
बेटा : क्या.....????
बनवारी लाल समोसे वाला : कल से चुपचाप बर्तन धोने बैठ जाना यहाँ पर...... मंदी को मैं खुद देख लुंगा.....
आपने सही कहा ये हौवा मात्र है जो कमजोर मानसूनी हवाओं के कारण हुआ किन्तु मान सून सामान्य होते ही खत्म होना था! अफसोस हुआ नहीं, कुछ शैतान बनवारी लाल के बेटे की तरह मंदी लाने को बेताब हैं उन्हें कौन समझाए कि ये हौवा मात्र है, जो आपके अति विश्वास से आपको ही घेर लेगा!

साभार  क्वोरा (राम प्रकाश बैरड़)

Sunday, September 1, 2019

सफलता क्या है?

मुझे लगता है आज के समय में किसी भी विषय की पढाई की जाये सब को सरकारी नौकरी मिलना संभव नहीं लगता हैं, तो ऐसे में सवाल यह उठता है कि बच्चों को शिक्षा से सम्बंधित मार्गदर्शन कैसे दिया जाए. 
क्या यही अपेक्षा की जाए की वे अच्छी शिक्षा हासिल करके किसी सरकारी नौकरी में चले जाये तभी उनका जीवन सफल होगा, उनके सामने कुछ अन्य विकल्प भी रखे जाए जैसे प्रायवेट सेक्टर में नौकरी या अपना स्वयं का बिज़नेस. 

अक्सर मैंने सुना/देख़ा  है कि लोग  सरकारी नौकरी के पीछे इतने दीवाने होते है कि कहते है "एक बार सरकार में कैसी  भी नौकरी मिल जाए बस" फिर तो जीवन आराम से काट जायेगा. परन्तु हमें आज अपनी भावी पीढ़ी को गैर सरकारी क्षेत्र में सफलता के लिए भी मार्गदर्शन देना चाहिए।

मै कुछ लोगो के बारे में आपको बताना चाहता हूँ जिनको मै व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, आप पढ़िए और फिर आप ही बताईये कि क्या आप इन्हे सफल मानते है,  या नहीं?

१. Director Operations ( कार्य निदेशक ) :
मुलताई तहसील के १ छोटे से गाँव से उसने अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की, परिवार की स्तिथि सामान्य ही थी, बड़े भाई म.प्र.वि.विभाग में थे तो उसने भी भोपाल से CPET (प्लास्टिक इंजीनियरिंग) में प्रवेश लिया, शायद उस समय म.प्र. में PET के माध्यम से प्रवेश मिलते थे. 1996 -97 अपनी पढाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षा देने लगा, परन्तु सफलता नहीं मिली और वह इंदौर में किसी प्राइवेट कम्पनी नौकरी करने लगा, वह कंपनी मशीनरी बनती थी. पूरी लगन से वह काम सीखने लगा, लगभग ५ वर्ष होगये थे उसे वहाँ काम करते हुए. 
उसकी कंपनी को १० मशीन सप्लाई और स्थापना (supply & Erection) का आर्डर एक विदेशी ग्राहक से मिला और कंपनी से उसे भेज दिया, उसने अपना काम बहुत अच्छी तरह से किया तो उस ग्राहक ने बहुत अच्छी वेतन पर उसे अपनी कंपनी का उत्पादन एवं मेंटेनेन्स प्रमुख बना दिया। उसने वहाँ भी बहुत मन लगा कर काम करके उस कंपनी को सफलता की उचाईयो पर ले गया और अगले 10 वर्षो में उसने 3  नई फैक्ट्रियां लगा दी. स्वयं के लिए भी बहूत पैसा जमा किया और गांव में कुछ खेत ख़रीदे, अपने लिए और भाई के लिए भी नये घर लिए. 

फिर १ दिन उसे अपना देश याद आने लगा और वह वापिस भारत आगया और आज वह भारत में एक प्रमुख बॉटलिंग प्लांट में director operations है. 

२. CFO  (प्रमुख वित्तीय अधिकारी) :
आज वह भारत की एक जानीमानी आईटी कंपनी में CFO हैं, परन्तु आज से 22 साल पहले जब एक छोटे से सरकारी कॉलेज में पढ़ रहा था तो किसने सोचा होगा कि वह एक दिन इतनी बड़ी सफलता हासिल कर लेगा. 
अत्यंत गरीब परिस्तिथि में १ छोटे से गाव के स्कूल से अपनी शिक्षा हासिल करने के बाद उसने १ छोटी सी नौकरी कर ली, सरकारी नौकरी की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी और फ़ीस भरने के भी पैसे नहीं थे उसके पास, और तब तो नौकरी में आरक्षण के बारे में भी पता नहीं था उसे.  मेहनत और लगन से काम करते हुए उसने अगले १० सालो में ३ अलग अलग कंपनियों में काम करते हुए अपने काम में महारत हासिल कर ली.
इस बीच उसने दिल्ली विश्वविद्यालय से MBA किया और विदेश में अवसर ढूंढ़ने लगा, १ दिन उसे सफलता मिली कर वह अच्छे वेतनपर विदेश चला गया, कुछ वर्षो तक वहाँ रहकर उसने अपनी योग्यता को निखारा और लगातार प्रगति करता रहा, कुछ देश बदले और और १ दिन फाइनेंस कंट्रोलर के पद पर पहुच गया. घर की आर्थिक स्थिति में सुधार किया, विश्व के कुछ अन्य देशो में रह कर अपनी सेवाएं देकर लगभग  १० वर्षो बाद भारत वापस लौट आया और अब वह समाज सुधार  और पर्यावरण संरक्षण पर अपना समय देता है. 

३. R & D, Computer Software
अपने गांव से प्राथमिक शिक्षा और बैतूल से हाईस्कूल की पढाई करके उसने भोपाल के बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइन्स में डिग्री हासिल की और बैंगलोर की किसी  कंपनी से अपने जीवन की शुरुआत की, पर वो वहां रुका नहीं, अपनी पढाई को आगे बढाते हुए उसने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की कुछ और भाषाएँ (languages) सीखी।  
आपनई योग्यता को बढ़ाते हुए उसने TCS, HCL और NOKIA जैसी कंपनियों में काम किया, उसे पूरी उम्मीद थी कि इक दिन उसकी मेहनत रंग लाएगी और वह कुछ बड़ा कर दिखायेगा।  सही अवसर आया और उसने बिना देर किये IBM में नौकरी ज्वाइन कर ली, आज वह सेनफ्रांसिस्को अमेरिका में हेड ऑफ़ आर & डी है.

ये तो केवल ३ उदहारण है, कितने ही ऐसे लोग है जिन्हे आप भी जानते होंगे, मै आप सबसे निवेदन करता हूँ कि आप भी ऐसे उदहारण प्रस्तुत करें. इस तरह से हम बच्चों को खुले तौर पर सोचने का मौका देंगे.
धन्यवाद 


प्रेम और मर्यादा

मैंने एक दिन अपनी पत्नी से पूछा क्या तुम्हे बुरा नहीं लगता मैं बार बार तुमको बोल देता हूँ डाँट देता हूँ फिर भी तुम पति भक्ति में लगी रहती हो जबकि मैं कभी पत्नी भक्त बनने का प्रयास नहीं करता?

मैं ""वेद"" का विद्यार्थी हूँ और मेरी पत्नी ""विज्ञान"" की परन्तु उसकी आध्यात्मिक शक्तियाँ मुझसे कई गुना ज्यादा हैं क्योकि मैं केवल पढता हूँ और ओ जीवन में उसका पालन करती है।

मेरे प्रश्न पर जरा ओ हँसी और बोली की ये बताइए एक पुत्र यदि माता की भक्ति करता है तो उसे मातृ भक्त कहा जाता है परन्तु माता यदि पुत्र की कितनी भी सेवा करे उसे पुत्र भक्त तो नहीं कहा जा सकता न।

मैं सोच रहा था आज पुनः ये मुझे निरुत्तर करेगी मैंने प्रश्न किया ये बताओ जब जीवन का प्रारम्भ हुआ तो पुरुष और स्त्री समान थे फिर पुरुष बड़ा कैसे हो गया जबकि स्त्री तो शक्ति का स्वरूप होती है?

मुस्काते हुए उसने कहा आपको थोड़ी विज्ञान भी पढ़नी चाहिए थी...मैं झेंप गया उसने कहना प्रारम्भ किया....दुनिया मात्र दो वस्तु से निर्मित है ""ऊर्जा""और ""पदार्थ""पुरुष ऊर्जा का प्रतीक है और स्त्री पदार्थ की। पदार्थ को यदि विकशित होना हो तो वह ऊर्जा का आधान करता है ना की ऊर्जा पदार्थ का ठीक इसी प्रकार जब एक स्त्री एक पुरुष का आधान करती है तो शक्ति स्वरूप हो जाती है और आने वाले पीढ़ियों अर्थात अपने संतानों केलिए प्रथम पूज्या हो जाती है क्योकि वह पदार्थ और ऊर्जा दोनों की स्वामिनी होती है जबकि पुरुष मात्र ऊर्जा का ही अंश रह जाता है।

मैंने पुनः कहा तब तो तुम मेरी भी पूज्य हो गई न क्योकि तुम तो ऊर्जा और पदार्थ दोनों की स्वामिनी हो?

अब उसने झेंपते हुए कहा आप भी पढ़े लिखे मूर्खो जैसे बात करते हैं आपकी ऊर्जा का अंश मैंने ग्रहण किया और शक्तिशाली हो गई तो क्या उस शक्ति का प्रयोग आप पर ही करूँ ये तो कृतघ्नता हो जाएगी।

मैंने कहा मैं तो तुमपर शक्ति का प्रयोग करता हूँ फिर तुम क्यों नहीं?

उसका उत्तर सुन मेरे आँखों में आंसू आ गए............

उसने कहा.....जिसके संसर्ग मात्र से मुझमे जीवन उत्पन्न करने की क्षमता आ गई ईश्वर से भी ऊँचा जो पद आपने मुझे प्रदान किया जिसे ""माता"" कहते हैं उसके साथ मैं विद्रोह नहीं कर सकती, फिर मुझे चिढ़ाते हुए उसने कहा कि यदि शक्ति प्रयोग करना भी होगा तो मुझे क्या आवश्यकता मैं तो माता सीता की भांति ""लव कुश""तैयार कर दूंगी जो आपसे मेरा हिसाब किताब कर लेंगे।

नमन है सभी मातृ शक्तियों को जिन्होंने अपने प्रेम और मर्यादा में समस्त सृष्टि को बांध रखा है
ऋणी हूँ मैं अपने पत्नी का जो मुझे पतन के तरफ जाने से सदैव रोक लेती है।

Sunday, July 28, 2019

Name Plate " Gayatri Niwas"

सुहावना मौसम, हल्के बादल और पक्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थे, जो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ आई थी.,

बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस आ शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गई. शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी नज़रें थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में खड़ी बुढ़िया पर ठहर गईं.
‘ओह! फिर वही बुढ़िया, क्यों इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है?’

शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो गई, मन में शंकाएं पनपने लगीं. इससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार नोटिस कर चुकी थी. दो महीने हो गए थे शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुए, मगर अभी तक एडजस्ट नहीं हो पाई थी.

पति का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर तबादला हुआ था, वो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गए. छोटी शैली का तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गया, मगर सोनू को बड़ी मुश्किल से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिला. वो दोनों भी धीरे-धीरे रूटीन में आ रहे थे, लेकिन शालू, उसकी स्थिति तो जड़ से उखाड़कर दूसरी ज़मीन पर रोपे गए पेड़ जैसी हो गई थी, जो अभी भी नई ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था.

सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल रहा था पूना में. उसकी अच्छी जॉब थी. घर संभालने के लिए अच्छी मेड थी, जिसके भरोसे वह घर और रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थी. घर के पास ही बच्चों के लिए एक अच्छा-सा डे केयर भी था. स्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को उसके ऑफ़िस से लौटने तक वहीं रहते. लाइफ़ बिल्कुल सेट थी, मगर सुधीर के एक तबादले की वजह से सब गड़बड़ हो गया.

यहां न आस-पास कोई अच्छा डे केयर है और न ही कोई भरोसे लायक मेड ही मिल रही है. उसका करियर तो चौपट ही समझो और इतनी टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़िया. कहीं छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रही? वैसे भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चों का अपहरण कोई नई बात नहीं है. सोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी.

दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आए, तो शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बताया. सुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक है, अगली बार कुछ ऐसा हो, तो वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगा, वरना फिर देखते हैं, पुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं.” कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए.

शालू का घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर नौकरी करने का संघर्ष  जारी था, पर इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी.

एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखा, वॉचमैन उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ था. सुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे. पास से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थी. शालू को लगा उसने यह चेहरा कहीं और भी देखा है, मगर कुछ याद नहीं आ रहा था. बात करके सुधीर घर के अंदर आ गए और वह बुढ़िया मेन गेट पर ही खड़ी रही.

“अरे, ये तो वही बुढ़िया है, जिसके बारे में मैंने आपको बताया था. ये यहां क्यों आई है?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा.

“बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगी. जैसा तुम उसके बारे में सोच रही थी, वैसा कुछ भी नहीं है. जानती हो वो कौन है?” शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात सुनने को बेक़रार था.

“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं.”

“क्या? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है.”

“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी मां है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर.

छी… कितना कमीना इंसान है, देखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था.”

सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठा. वहीं शालू याद्दाश्त पर कुछ ज़ोर डाल रही थी.

“हां, याद आया. स्टोर रूम की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी. उस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थी. उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि  इसे कहीं देखा है, मगर अब ये यहां क्यों आई हैं?

क्या घर वापस लेने? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है.” शालू चिंतित हो उठी.

“नहीं, नहीं. आज इनके पति की पहली बरसी है. ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी.”

“इससे क्या होगा, मुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं.”

“तुम्हें न सही, उन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा?”

“ठीक है, आप उन्हें बुला लीजिए.” अनमने मन से ही सही, मगर शालू ने
हां कर दी.

गायत्री देवी अंदर आ गईं. क्षीण काया, तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू. अंदर आकर उन्होंने सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए.

नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थीं, जो कभी उनका अपना था. आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक साथ तैर आए थे.

वो ऊपरवाले कमरे में गईं. कुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहीं. बंद आंखें लगातार रिस रही थीं.

फिर उन्होंने दीया जलाया, प्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आई थी. सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी, मगर…” स्वर भर्रा आया था.

“यही कमरा था मेरा. कितने साल हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथ, मगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं.

शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहे. थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं.

पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही. उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे.

“आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूं.” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से सुधीर को भी बाहर बुलाकर कहने लगी, “सुनिए, मुझे एक बड़ा अच्छा आइडिया आया है, जिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा.

क्यों न हम इन्हें यहीं रख लें? अकेली हैं, बेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी है. यहां से कहीं जाएंगी भी नहीं और हम यहां वृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे उन्हें.”

“तुम्हारा मतलब है, नौकर की तरह?”
“नहीं, नहीं. नौकर की तरह नहीं. हम इन्हें कोई तनख़्वाह नहीं देंगे. काम के लिए तो मेड भी है. बस, ये घर पर रहेंगी, तो घर के आदमी की तरह मेड पर, आने-जानेवालों पर नज़र रख सकेंगी. बच्चों को देख-संभाल सकेंगी.

ये घर पर रहेंगी, तो मैं भी आराम से नौकरी पर जा सकूंगी. मुझे भी पीछे से घर की, बच्चों के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी.”

“आइडिया तो अच्छा है, पर क्या ये मान जाएंगी?”

“क्यों नहीं. हम इन्हें उस घर में रहने का मौक़ा दे रहे हैं, जिसमें उनके प्राण बसे हैं, जिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं.”

“और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना हक़ जमाने लगीं तो?”

“तो क्या, निकाल बाहर करेंगे. घर तो हमारे नाम ही है. ये बुढ़िया क्या कर सकती है.”

“ठीक है, तुम बात करके देखो.” सुधीर ने सहमति जताई.

शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिए, अगर आप चाहें, तो यहां रह सकती हैं.”

बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से चमक उठीं. क्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैं, लेकिन फिर बुझ गईं.

आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने ही उन्हें घर से यह कहते हुए बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े घर में रहने से अच्छा उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना होगा. वहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के क्यों रखेंगे?

“नहीं, नहीं. आपको नाहक ही परेशानी होगी.”

“परेशानी कैसी, इतना बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा.”

हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा समझ गईं, मगर उस घर में रहने के मोह में वो मना न कर सकीं.

गायत्री देवी उनके साथ रहने आ गईं और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली.

सभी उन्हें  अम्मा कहकर ही बुलाते. हर काम उनकी निगरानी में सुचारु रूप से चलने लगा.

घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर ली.
सालभर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातीं, तैयार करतीं, मान-मनुहार कर खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तीं. फिर किसी कुशल प्रबंधक की तरह अपनी देखरेख में बाई से सारा काम करातीं. रसोई का वो स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगीं, ख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के व़क़्त वो नित नए स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार कर देतीं.

शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से न खाते थे, वे उनके बनाए व्यंजन ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगे थे.

बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल गए थे. उनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहनेवाले बच्चे उनकी हर बात मानने लगे. समय से खाना-पीना और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते.

अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थीं, वहीं हर व़क़्त टीवी देखने की बुरी आदत से भी दूर ले जा रही थीं.

शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत थे, क्योंकि उन दोनों के पास तो कभी बच्चों के पास बैठ बातें करने का भी समय नहीं होता था.

पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थिति, नानी-दादी का प्यार, बच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है. उसके बच्चे तो शुरू से ही इस सुख से वंचित रहे, क्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं.

आज शालू का जन्मदिन था. सुधीर और शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया था. सोचा था, बच्चों को अम्मा संभाल लेंगी, मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गए. बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था.

वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़ और केक बनाए हुए थे. इस सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी, बच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत से शालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं.

इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था.

बच्चे दौड़कर शालू के पास आ गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा?”

“बहुत अच्छा, इतना अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया.

“हमें पता था आपको अच्छा लगेगा. अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया.”

शालू की आंखों में अम्मा के लिए कृतज्ञता छा गई. बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण.
केक कटने के बाद गायत्री देवी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी.

“ये क्या है अम्मा?”

“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार.”
शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की चेन थी.

वो चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है.”

“हां बेटी, सोने की ही है. बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं. कुछ और तो नहीं है मेरे पास, बस यही एक चेन है, जिसे संभालकर रखा था. मैं अब इसका क्या करूंगी. तुम पहनना, तुम पर बहुत अच्छी लगेगी.”

शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी. जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका इतना बड़ा दिल कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं.

“नहीं, नहीं अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती.”

“ले ले बेटी, एक मां का आशीर्वाद समझकर रख ले. मेरी तो उम्र भी हो चली. क्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं.”

“नहीं अम्मा, ऐसा मत कहिए. ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे.” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गई, जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो.

वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूली, क्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था, जिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यार. वो जन्मदिन गायत्री देवी भी नहीं भूलीं, क्योंकि उस दिन उनकी उस घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी.

घर की बड़ी, आदरणीय, एक मां के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर लगाई गई वो पुरानी नेमप्लेट भी दे रही थी, जिस पर लिखा था
           ‘गायत्री निवास’.

Thursday, January 17, 2019

कामयाबी की बाधा

एक बार स्वामी विवेकानन्द के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। 


वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला...
“महाराज! मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ।“

स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा...
“तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।“

उस व्यक्ति ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी खासी सैर करा कर जब वो व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहुँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हाँफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी जी ने उससे पूछा....
“कि ये कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया? जबकि तुम तो अभी भी साफ सुथरे और बिना थके दिख रहे हो।“

व्यक्ति ने कहा....
“मैं तो सीधा अपने रास्ते पे चल रहा था, लेकिन ये कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसीलिए ये थक गया है।“

स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहा....
“यही तुम्हारे सभी प्रश्नों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आस पास ही है वो ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पे जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।“
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"मित्रों! यही बात हमारे दैनिक जीवन पर भी लागू होती है हम लोग हमेशा दूसरों का पीछा करते रहते है कि वो डॉक्टर है तो मुझे भी डॉक्टर बनना है, वो इंजीनियर है तो मुझे भी इंजीनियर बनना है, वो ज्यादा पैसे कमा रहा है तो मुझे भी कमाना है। बस इसी सोच की वजह से हम अपने टेलेंट को कहीं खो बैठते हैं और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है, तो दूसरों की होड़ मत कीजिए और अपनी मंजिल खुद तय कीजिए।

अगर आप होड़ या प्रतिद्वंदिता करना ही चाहिते हैं तो स्वयं के सम्मुख स्वयं को ही रखिए, अपना मापदंड स्वयं बनिये, आप इस तरह देखिये कि....
'आप स्वयं पिछले महीने/वर्ष जो थे उससे कुछ बेहतर हुए या नहीं' यही आपका उचित मापदंड होना चाहिये।
अर्थात स्वयं से ही स्वयं को नापिए।

इसके अतिरिक्त जितना ध्यान आप दूसरों को देखने और उनकी कमियों पर कुढ़ने या खुश होने पर लगाते हैं, उतना ध्यान अगर स्वयं की कमियों को ढ़ूढकर उन्हें दूर करने एवं स्वयं की खूबियों को ढ़ूढकर उन्हें निखारने में लगाएं तो आपको कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता।

इस प्रकार देखा जाए तो आपकी कामयाबी या नाकामयाबी का मूल कारण कहीं न कहीं आप स्वयं ही हैं।

दोस्तों! आत्मनिरिक्षण एवं आत्मोन्नति आपका स्वयं का दायित्व है न की किसी और का।।"